Wednesday 7 September 2011

ख्वाहिश


इंसान की फितरत में कितनी हसरत होती है,
कि हर ख्वाहिश ,उसकी जरूरत होती है ।
                           जो चाह लिया ,उसे हासिल कर जाना है ,
                            उसके लिए ही फिर ,रब को भी मनाना हैं।
मानो उस ख्वाहिश से बढ़कर कोई चाहत ना होगी,
उससे ज्यादा किसी की भी इबादत ना होगी।

पर उस ख्वाहिश के मिलने पर अंजाम यही होता है,
शुरू में जैसे,सारी जिंदगी का अरमान यही होता है।
,पर कुछ दिन मे ये ख्वाहिश,फरमाइश सी लगने लगती है,
कुछ दिनों के लिए पूरी हुई नुमाइश सी लगने लगती है।

ख्वाहिशे पूरा होने पर जब, उसकी अहमियत नही रखते,
फिर क्यों इंसा ऐसी ख्वाहिशे ही रखते है।
ख्वाहिशे वो नही जो पूरा होने पर कभी किसी मोड़ पर बदल जाए,
  ख्वाहिशे तो वो है जिसके पूरा होने पर जिदंगी बदल जाए।

2 comments:

  1. अंकिता जी भाव अच्‍छे हैं, लेकिन कहीं-कहीं शब्‍दों का भावों से मिलन ठीक से नहीं हुआ है। उस पर ध्‍यान है। आपकी लेखनी सच में भावों की लेखनी है।

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  2. कुछ दिन मे ये ख्वाहिश,फरमाइश सी लगने लगती है,
    कुछ दिनों के लिए पूरी हुई नुमाइश सी लगने लगती है...
    अच्‍छी पंक्तियां...

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