Wednesday, 9 May 2012


हम चाहकर भी,हमसे दिख नही पाते,
जीते तो है मगर, खुद सा जी नही पाते।
 क्या दिखना है, वही दिखाते है
और क्या है हम, ये खुद के अंदर छुपा लेते हैं।
खुल के जीने की चाह भी है अरमान भी है,
और इस दुनिया से परे, खुद का गुमान भी हैं।
पर इस दुनिया के लिए, खुद को खोते जा रहे है,
दुनिया के धागे मे ,खुद को मोतियांे सा पिरोते जा रहे है।
जी तो चाहता है,इसे धागें से आजाद होने को ,
उपने में सिमट कर, खुद में जीने केा।
ना जाने कब इस बंधन को, मै तोड़ पाऊंगी।
दुनिया केl भूल कर, खुद में आजाद रहकर जी पाऊंगी?

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