इंसान की फितरत में कितनी हसरत होती है,
कि हर ख्वाहिश ,उसकी जरूरत होती है ।
जो चाह लिया ,उसे हासिल कर जाना है ,
उसके लिए ही फिर ,रब को भी मनाना हैं।
मानो उस ख्वाहिश से बढ़कर कोई चाहत ना होगी,
उससे ज्यादा किसी की भी इबादत ना होगी।
पर उस ख्वाहिश के मिलने पर अंजाम यही होता है,
शुरू में जैसे,सारी जिंदगी का अरमान यही होता है।
,पर कुछ दिन मे ये ख्वाहिश,फरमाइश सी लगने लगती है,शुरू में जैसे,सारी जिंदगी का अरमान यही होता है।
कुछ दिनों के लिए पूरी हुई नुमाइश सी लगने लगती है।
ख्वाहिशे पूरा होने पर जब, उसकी अहमियत नही रखते,
फिर क्यों इंसा ऐसी ख्वाहिशे ही रखते है।
ख्वाहिशे वो नही जो पूरा होने पर कभी किसी मोड़ पर बदल जाए,फिर क्यों इंसा ऐसी ख्वाहिशे ही रखते है।
ख्वाहिशे तो वो है जिसके पूरा होने पर जिदंगी बदल जाए।
अंकिता जी भाव अच्छे हैं, लेकिन कहीं-कहीं शब्दों का भावों से मिलन ठीक से नहीं हुआ है। उस पर ध्यान है। आपकी लेखनी सच में भावों की लेखनी है।
ReplyDeleteकुछ दिन मे ये ख्वाहिश,फरमाइश सी लगने लगती है,
ReplyDeleteकुछ दिनों के लिए पूरी हुई नुमाइश सी लगने लगती है...
अच्छी पंक्तियां...