एक मज़हब की शरहद में ,जाने सब क्यों बंध जाते है,
इसी शरहद के वास्ते,
प्यार के रिश्तें भी कितने ग़मगीन बन जाते हैं ।
ना इल्म था ये दिल ,इस कदर नाद़ां बनेगा,
इत्तेफाकन हुआ इश्क, यूं परवान चढ़ेगा।
हर दिल अजीज कोई ,इस कदर हो जाएगा
जिसे दफन होने पर भी ये जिस्म ,
खुद से जुदा ना कर पाएगा।
इस इश्क के खातिर,इस जहां मे कोई आषियाना नही,
पनाह दे सके जो इस गुनाह को,ऐसा कोई ठिकाना नही।
हर शरहद से बड़ी,ये इश्क की दीवार है,
एक तरफ अपना इश्क ,तो दूसरी तरफ अपना घरबार है।
इस दीवार के कारण ही सारी तकरार है,
कब ये दीवार टूटेगी,अब तो बस ये ही इंतजार है।
अपनी खुशी छोड़कर,
अपनो को खुश रखना ,यही दस्तूर हो गया है
मज़हब के बाहर होना ही,
इस इश्क का कसूर हो गया है।
इस कसूर की सजा की तो,इस कदर हीं अदायगी होगी ,
या तो अपनो की, या फिर इस इश्क की कुर्बानी होगी।
गर इश्क का साथ चाहा ,तो अपनों का साथ ना मिल सका है।
बहुत चाह कर भी ,
मज़हबी दीवारों को ये इश्क तोड़ ना सका है।
अपनो के खातिर इश्क को बिछड़ना ही पड़ा हैं,
फिर चाहे जुदा होकर ,ताउम्र मरना पड़ा है।
इन इश्क के परवानों को तो,इस आग में जलना पड़ा है।
इस मज़हब की लौ में तिल तिल पिघलना पड़ा है।
इसी शरहद के वास्ते,
प्यार के रिश्तें भी कितने ग़मगीन बन जाते हैं ।
ना इल्म था ये दिल ,इस कदर नाद़ां बनेगा,
इत्तेफाकन हुआ इश्क, यूं परवान चढ़ेगा।
हर दिल अजीज कोई ,इस कदर हो जाएगा
जिसे दफन होने पर भी ये जिस्म ,
खुद से जुदा ना कर पाएगा।
इस इश्क के खातिर,इस जहां मे कोई आषियाना नही,
पनाह दे सके जो इस गुनाह को,ऐसा कोई ठिकाना नही।
हर शरहद से बड़ी,ये इश्क की दीवार है,
एक तरफ अपना इश्क ,तो दूसरी तरफ अपना घरबार है।
इस दीवार के कारण ही सारी तकरार है,
कब ये दीवार टूटेगी,अब तो बस ये ही इंतजार है।
अपनी खुशी छोड़कर,
अपनो को खुश रखना ,यही दस्तूर हो गया है
मज़हब के बाहर होना ही,
इस इश्क का कसूर हो गया है।
इस कसूर की सजा की तो,इस कदर हीं अदायगी होगी ,
या तो अपनो की, या फिर इस इश्क की कुर्बानी होगी।
गर इश्क का साथ चाहा ,तो अपनों का साथ ना मिल सका है।
बहुत चाह कर भी ,
मज़हबी दीवारों को ये इश्क तोड़ ना सका है।
अपनो के खातिर इश्क को बिछड़ना ही पड़ा हैं,
फिर चाहे जुदा होकर ,ताउम्र मरना पड़ा है।
इन इश्क के परवानों को तो,इस आग में जलना पड़ा है।
इस मज़हब की लौ में तिल तिल पिघलना पड़ा है।
पर इस शमा को क्या कोई मजहब बुझा सकी है,
क्योंकि इस शमा को तो, खुद खुदा ने रोशनी दी है।
बहुत खूब अंकिता सच्च्ो और अच्छे भाव जब पिरोए जाते हैं तो कविता बन ही जाती है। अच्छा है जारी रखो।
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